2014 में केन्द्र में सत्ता के परिवर्तन से बहुत कुछ ऐसा सार्वजानिक हो रहा है, जिसकी शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी।दिल्ली की जामा मस्जिद और फतेहपुरी मस्जिद के बारे में तो सुना था कि 1865 के आसपास इन दोनों की नीलामी हुई थी। लेकिन सनातन टाइम्स पर (http://sanatantimes.com/seth-lakhmichand-buy-2-time-taj-mahal/?subscribe=success#blog_subscription-3) ताजमहल की नीलामी दो बार की गई पहली बार में इसे डेढ़ लाख में व दूसरी बार सात लाख में इसे बेचा गया।वास्तव में सनसनी खेज समाचार है।
अपने तत्कालीन सम्पादक प्रो वेद प्रकाश भाटिया से अनुमति लेकर स्वतन्त्र पत्रकारिता, उनकी कुछ शर्तों के साथ, शुरू की थी। रामजन्मभूमि विवाद पर दिल्ली में लगते कर्फ्यू पर एक खानदानी नेता जो तत्कालीन निगम पार्षद भी थे से साक्षात्कार में जामा मस्जिद और फतेहपुरी मस्जिद की नीलामी के विषय में प्रश्न करते ही लगभग 45 मिनट तक खूब नोकझोंक उपरान्त स्वीकारा की 1865 के आसपास ब्रिटिश सरकार ने इन दोनों मस्जिदों पर पाबन्दी लगा दी थी। इन दोनों मस्जिदों में ब्रिटिश सरकार की आर्मी और उनके घोड़े रहते थे। यह साक्षात्कार दिल्ली और दिल्ली से बाहर कई दैनिकों में प्रकाशित हुआ था। मुस्लिम समाज को उनका अधिकार दिलाने के लिए हिन्दुओं ने ही संघर्ष किया था। हिन्दुओं के संघर्ष के आगे ब्रिटिश सरकार को झुकना तो पड़ा, लेकिन नीलामी के रूप में।
उस समय दिल्ली के दो सेठ थे, सेठ छुन्ना मल, जिनका छुन्ना मल मेन्शन टाउन हॉल(के निकट) से लाल किला की ओर आते हुए देखा सकता है; और सेठ सत्य नारायण गुड़ वाले( घण्टे वाला मिठाई की दुकान इसी खानदान की है)। बरहाल, जामा मस्जिद नीलामी में छुन्ना मल ने खरीदी और फतेहपुरी मस्जिद सत्य नारायण ने। सारी क़ानूनी कार्यवाही पूरी करने उपरान्त इन सेठों ने दोनों मस्जिदें मुसलमानों के हवाले करते हुए कहा “मगरिब की नमाज की आजान की आवाज़ आनी चाहिए। हमने ज़मीन खरीदी है खुदा का घर नहीं। दोनों मस्जिदों की धुलाई होने उपरान्त मगरिब की नमाज़ हुई।
लेकिन ताज महल की भी नीलामी हुई, वह भी दो बार। पी.एन.ओक की पुस्तक में यह जरूर पढ़ा कि “यह शिव मन्दिर है।”लेकिन ताज महल की नीलामी के विषय में पढ़ कर, सोंचा क्यों न अपने माननीय पाठकों के साथ इसे शेयर किया जाए। प्रस्तुत है लेख, जिसे बिना छेड़े पेश कर रहा हूँ, क्योंकि यह घटना अब इतिहास है :--
शर्त ये थी कि ताजमहल के पत्थरों पर खूबसूरत इनले वर्क और सुंदर पत्थरों को तोड़कर अंग्रेजों को सौंपना था। विश्वविरासत ताजमहल को शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज महल की याद में बनवाया था।1831 में अंग्रेजों ने ताजमहल को दो बार नीलाम कर दिया था। मथुरा के सेठ लख्मीचंद ने सबसे बड़ी बोली लगाई थी। सौभाग्य था कि ताजमहल बच गया। यहां तक की कहानी तो सबको पता है। आखिर क्या कारण था कि नीलाम होने के बाद भी ताजमहल में कोई प्रवेश नहीं कर सका? शाहजहां का ताजमहल सेठ लख्मीचंद का ताजमहल होने से कैसे बचा? यह जानने के लिए ये खबर पढ़िए।
अंग्रेजों के लिए क्लब हो गया था ताजमहल
पहले आपको पुरानी कहानी बताते हैं। मुगलकाल की कला का सबसे नायाब नमूना ताजमहल है। ताजमहल को भारत में मुस्लिम कला का हीरा कहा जाता है। 19वीं सदी में अंग्रेजों ने ताजमहल का प्रयोग पार्टी पूल की तरह किया। ताजमहल परिसर में शराब का सेवन भी किया जाता था। मस्जिद के सामने वाले हिस्से को किराये पर उठा दिया गया था। इस तरह ताजमहल की पवित्रता भंग की जा रही थी। अंग्रेजों के लिए यह मुमताज की कब्र न होकर क्लब हो गया था।
खूबसूरत पत्थरों को लंदन ले जाना था
बंगाल के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम हेनरी कैवेन्डिश, जिन्हें लॉर्ड बेंटिंक के नाम से जाना जाता है, की नजर ताजमहल पर गई। वे बाद में भारत के गर्वनर जनरल भी रहे। बेंटिंक ने सोचा कि ताजमहल के खूबसूरत पत्थरों को लंदन ले जाया जाए और नीलामी करके क्वीन विक्टोरिया का खजाना भरा जाए। उन्होंने आगरा औऱ दिल्ली के स्मारकों को गिराने का ऐलान कर दिया। उसने कहा कि कुछ हिस्सा भारतीय अमीरों को बेचा जाएगा और बाकी लंदन में।
1.5 लाख रुपये में बेचा ताजमहल
अंततः ब्रिटिश सरकार ने मथुरा के सेठ लख्मीचंद को ताजमहल 1.5 लाख रुपये में बेच दिया। सेठ लख्मीचंद ताजमहल पर कब्जा लेने पहुंचे। जब ताजमहल के आसपास रहने वाले ताजगंज के लोगों को इसका पता चला तो विरोध शुरू हो गया। हिन्दू और मुसलमान एकजुट हो गए। उनका कहना था कि शाहजहां ने ताजमहल का निर्माण करने वाले श्रमिकों के लिए कई कटरे बसाए थे। वे उन्हीं के वारिस हैं। हमारे रहते कोई ताजमहल के पत्थरों को नहीं ले जा सकता है। लोगों की भावनाओं का आदर करते हुए सेठ लख्मीचंद ने पांव पीछे खींच लिए। ताजमहल को खरीदने का विचार त्याग दिया।
दोबारा सात लाख रुपये में खरीदा
इस घटना से लॉर्ड बेंटिंक ताव खा गया। कुछ महीने बाद उसने कोलकाता के अंग्रेजी दैनिक अखबार में ताजमहल को बेचने का विज्ञापन छपवाया। यह बात 26 जुलाई, 1931 की है। नीलामी दो दिन तक चली। पहले दिन मथुरा के सेठ और राजस्थान के शाही परिवार के सदस्यों ने नीलामी में भाग लिया। दूसरे दिन अंग्रेजों को मौका मिला। यह नीलामी मथुरा के सेठ लख्मीचंद के नाम रही। उन्होंने सात लाख रुपये में ताजमहल को फिर खरीद लिया।
मथुरा के सेठ ने दो बार नीलामी में खरीदा था ताजमहल।
क्यों बच गया ताजमहल
फिर वही समस्या थी। ताजमहल के पत्थरों को जहाज से लंदन ले जाने की कीमत बहुत अधिक हो रही थी। स्थानीय लोग इसका विरोध कर ही रहे थे। कहा जाता है कि ब्रिटिश सेना के एक अज्ञात सिपाही ने ब्रिटिश संसद के सदस्य को बेंटिंक की पूरा कथा बता दी। यह मामला ब्रिटिश संसद में गूंजा। इसके बाद ताजमहल को गिराने का विचार बेंटिंक को त्यागना पड़ा।
ब्रज के लिए गौरव की बात
सेठ लख्मीचंद जैन के प्रपौत्र सेठ विजय कुमार जैन ने यह पूरी कहानी ‘मथुरा सेठ’ पुस्तक में लिखी है। उनका कहना है कि हमारा इरादा ताजमहल पर कब्जे का नहीं है। यह ब्रज के लिए गौरव की बात है कि 1831में मथुरा के सेठ ने ताजमहल को दो बार खरीद लिया था। इतिहासवेत्ता प्रो. रामनाथ ने अपनी पुस्तक ताजमहल, ब्रिटिश लेखक एचजी केन्स ने आगरा एंड नेबरहुड पुस्तक में ताजमहल की नीलामी के बारे में जानकारी दी है।
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