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गीता को फाड़कर कचरे की पेटी में फेंक देना चाहिए -- दलित नेता विजय मानकर

अंबेकराइट पार्टी ऑफ इंडिया के अध्यक्ष विजय मानकर की
इस तस्वीर का इस्तेमाल यूट्यूब से किया गया है।
सोशल मीडियो पर इन दिनों एक वीडियो तेजी से वायरल हो रहा है। इस वीडियो में अंबेकराइट पार्टी ऑफ इंडिया के प्रेसीडेंट विजय मानकर कह रहे हैं कि गीता को फाड़कर कूड़ेदान में फेंक देना चाहिए। आपको बता दें कि विजय मानकर का ये बयान अली शोहराब नाम के फेसबुक पेज से शेयर किया गया है। इस वीडियो को एक दिन में ही लगभग 1 लाख लोग देख चुके हैं। इसे अब तक 6 हजार लोगों ने अपने फेसबुक वॉल पर शेयर भी किया है। वीडियो में विजय मानकर मंच से लगभग चुनौती भरे अंदाज में कह रहे हैं जो गीता युद्ध और हिंसा को धर्म बताती है उसे कचरे के डिब्बे में फेंक देना चाहिए। हालांकि ये वीडियो कब का है इस बारे में कोई आधिकारिक पुष्टी नहीं की गई है। जनसत्ताऑनलाइन भी इसवीडियो की पुष्टी नहीं करता है।
वीडियो में दिख रहा है कि अंबेकराइट पार्टी ऑफ इंडिया के प्रेसीडेंट विजय मानकर कह रहे हैं कि ‘मैं आज इस मंच से कहता हूं कि गीता को कचरे की पेटी में फेंक देना चाहिए। गीता कहती है कि मैंने वर्ण व्यवस्था बनाई है, गीता कहती है कि ब्राह्मण श्रेष्ठ होते हैं हमें ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिए। गीता महिलाओं को कनिष्ठ मानती है, हिंसा और युद्ध को धर्म बताती है। गीता समता को नकारती है, इंसानियत और स्त्री पुरुष में समानता को नकारती है। जो गीता हिंसा को धर्म बताती है उसे इस देश का राष्ट्रीय ग्रंथ तो क्या दुनिया के किसी भी ग्रंथ की पंक्ति में बैठने के लायक भी नहीं है।’
आपको बता दें कि विजय मानकर जिस अंबेकराइट पार्टी ऑफ इंडिया के अध्यक्ष हैं इसका गठन साल 14 अप्रैल 2013 में किया गया था। इस पार्टी का मुख्यालय महाराष्ट्र के नागपुर में है। 2014 के लोकसभा चुनावों में इस पार्टी ने अपने 34 कंडिडेट मैदान में उतारे थे लेकिन किसी को जीत नहीं मिली। पिछले साल केरल के विधानसभा चुनावों में भी इस पार्टी ने अफने 5 प्रत्याशी उतारे लेकिन वहां भी हार ही नसीब हुई।(साभार : जनसत्ता)
पूज्य भीमराव आंबेडकर और ये भीमसेना
 रामायण में जितने भी सात्विक चरित्र हैं उनमें एक लक्ष्मण भी है. उनका चरित और उनका त्याग बड़ा अद्भुत है. लक्ष्मण ने भाई के रूप में ऐसी मर्यादा स्थापित की थी कि आज साढ़े सत्रह लाख साल बाद भी दुनिया भ्रातृप्रेम के लिये लक्ष्मण का उदाहरण ही देता है, पिता ने उन्हें वन जाने को नहीं कहा था पर भाई के प्रेम में वो भी साथ चल दिये, राम के साथ तो फिर भी माता सीता थीं पर लक्ष्मण अकेले ही गये. कहतें हैं कि भाई और भाभी की सेवा तथा सुरक्षा में सजग लक्ष्मण ने 14 साल तक नींद को अपने आँखों में फटकने नहीं दिया, मेघनाद से युद्ध करते हुए उन्हें शक्तिबाण से भी मूर्छित होना पड़ा पर वाल्मीकि ने अपने काव्य का नाम लक्ष्मण के नाम पर न रखकर राम के नाम पर रामायण रखा, दुनिया ने राम के नाम के जयकारे लगाये लक्ष्मण के नाम के नहीं क्यूँ ? इसलिये क्योंकि राम ने शबरी के जूठे बेर खाये थे और लक्ष्मण ने उसे फेंक दिया था. दुनिया "श्रीराम जय राम जय जय राम" कहती है उसकी वजह राम की करुणा थी जो समाज के सबसे निचले पायदान पर बैठे लोगों के लिये भी थी.
समाज के वंचित वर्ग से आने वाली शबरी के प्रति प्रेम रखने वाले और उसमें माँ का रूप देखने वाले उसी भगवान राम का एक मंदिर महाराष्ट्र के नासिक ज़िले के पंचवटी में है. इस मंदिर को कालाराम मंदिर के नाम से जाना जाता है. मंदिर में भगवान राम की एक बड़ी सुंदर और भव्य प्रतिमा स्थापित है. एक समय था जब कुछ मूढ़मति लोगों ने वंचित वर्ग के आराध्य राम के दर्शनों से वंचित समाज को ही रोक दिया. इस अन्याय के खिलाफ 2 मार्च, 1930 को पूज्य बाबासाहेब आंबेडकर ने सत्याग्रह किया. अछूत भी हिन्दू ही हैं और इस नाते भगवान राम हम सभी के हैं, उनके दर्शन से हमें वंचित नहीं किया जा सकता इस सत्याग्रह के पीछे का भाव यही था. दुर्भाग्य का चादर ओढ़ रखे मूढ़ पुजारी वर्ग और हिन्दू समाज ने बाबासाहेब के इस सत्याग्रह का विरोध किया और वंचितों को मंदिर में प्रवेश करने नहीं दिया. बाबा साहेब के नेतृत्व में यह सत्याग्रह पांच साल चला पर सवर्ण समाज का मन नहीं बदला.
आज से करीब 80 साल पहले हुये उस पाप में मुख्य भागीदार थे रामदास जी महाराज जो उस मंदिर के मुख्य पुजारी थे. अब वो दुनिया में नहीं थे पर प्रश्न बना हुआ था कि अतीत में अपने ही समाज के साथ हुये इतने बड़े अन्याय और इतनी बड़ी जो गलती हुई थी तो प्रायश्चित कौन करे? जाहिर है प्रायश्चित उन्हें करना था जिन्होनें ये पाप किया था पर चूँकि अब वो नहीं थे तो अब प्रायश्चित करने की जिम्मेदारी उनकी थी जो उनके वंशज और उनकी संतति थे. उन्होंनें प्रायश्चित किया भी.
2005 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कुछ समरसता यात्राओं का आयोजन किया था. यात्रा की रवानगी से पूर्व यात्रा की सफलता के लिये एक यज्ञ करने का निश्चय किया गया. उपरोक्त वर्णित उसी कालाराम मंदिर में ये यज्ञ होना तय हुआ. उस समय के प्रमुख पुजारी महामण्डलेश्वर श्री सुधीरदास (जो रामदासजी के पौत्र थे) इस यज्ञ को संपादित करने वाले थे. श्री सुधीरदास ने इस अवसर को प्रायश्चित यज्ञ में बदल दिया. यज्ञ में बैठने वाले और समस्त कर्मकांडों को करने वाले वंचित और अश्पृश्य समाज के लोग थे. ये इतना ही नहीं था इसके बाद श्री सुधीरदास जी महाराज ने 75 साल पहले अपने दादा रामदास जी के कृत्य के लिये सार्वजनिक क्षमा याचना की और कहा कि ईश्वर का दर हरेक के लिये खुला है.
कालाराम मंदिर का उदाहरण अकेला नहीं है. अतीत में सवर्ण समाज से पाप हुये थे ये निर्विवाद है पर उसके लिये प्रायश्चित करने भी उसी समाज से लोग आगे आये. बाबासाहेब सावरकर, तिलक, गाँधी, गोडसे ये सब उसी सवर्ण समाज से थे जिन्होनें अश्पृश्यता का खुलकर विरोध किया था. विश्व हिन्दू परिषद् के स्थापना के अवसर पर उडुपी में सारे संतों, महामंडलेश्वरों और शंकराचार्यों ने जब एक मंच से "अश्पृश्यता पाप है, इसे किसी धर्मशास्त्र का समर्थन नहीं है, हर हिन्दू सहोदर हैं और कोई हिन्दू कभी पतित नहीं होता" की घोषणा की थी तब गुरूजी माधवराव सदाशिव राव गोलवलकर ख़ुशी और हर्षातिरेक से मंच पर नाचने लगे थे.
इस पूरे आलेख के कई सन्देश हैं,
१. समाज ने बाबासाहेब को राम के मंदिर में जाने से रोका तो बाबा साहेब प्रतिक्रिया में रावण को पूजने नहीं गये बल्कि राम को पूजने के अधिकार के लिये पांच साल संघर्षरत रहे. क्योंकि उन्हें पता था गलती समाज की है और समाज की गलती सर्वजन समाज के प्रतिनिधि राम को गाली देने और रावण को महिमामंडित करने का कारण नहीं हो सकता.
२. बाबासाहेब ने कालाराम मंदिर में प्रवेश के लिये पांच वर्षों तक आन्दोलन किया पर ये आन्दोलन पूर्णतया अहिंसक था. मतलब ये है बाबासाहेब का सन्देश स्पष्ट था कि अन्याय के प्रतिकार का मार्ग कभी भी हिंसक नहीं हो सकता.
३. ग़लती जिनसे या जिनके पूर्वजों से हुई थी प्रायश्चित भी उन्होंने ही किया है.
आज जो लोग बाबासाहेब के नाम पर भीमसेना बनाये बैठे हैं या अपनी दुकानें चला रहें हैं उन्होंनें बाबासाहेब को अपमानित किया है क्योंकि उन्होंनें अपने आन्दोलन के लिये सिर्फ उनका नाम लिया उनके आदर्श नहीं लिये. अगर लिये होते तो रावण महिमंडित नहीं हो रहा था, आन्दोलन हिंसा की राह पर नहीं चल पड़ा होता और सवर्णों के प्रायश्चित यज्ञ को भूलकर आधारहीन और भ्रामक प्रचार नहीं चल रहा होता.
भीमसेना वालों को ये बात समझनी पड़ेगी कि समाज परिवर्तन और मानसिकता परिवर्तन निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, अनायास ही कुछ नहीं बदलता. अस्पृश्यता, छूआछूत, भेदभाव समय के साथ कम होते जा रहें हैं. पूज्य बाबासाहेब समाज को बदलने के पक्षधर थे पर न तो हिंसा उनका रास्ता था न ही सवर्णों के लिये द्वेष उनके आन्दोलन का आधार था और न ही सामाजिक खाई को और गहरा करना उनका मंतव्य था और तो और पूज्य बाबा साहेब अपने घर के झगड़े में किसी बाहर वाले की मदद लेने नहीं गये थे. भीमसेना और उनके समर्थक इस बात को समझें वर्ना भाई-भाई के बीच के मनभेद में कोई और बाजी मार ले जायेगा.

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