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ऐय्याश अकबर को महान बताने वाले इतिहासकारों का बहिष्कार हो


पिताश्री एम.बी.एल. निगम 
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श्री केवल रतन मलकानी 

अस्सी के दशक में विश्व चर्चित पत्रकार श्री केवल रतन मलकानी, मुख्य सम्पादक और सम्पादक प्रो वेद प्रकाश भाटिया की छत्रसाया में पत्रकारिता में पदापर्ण करने पर अपने पिताश्री मगन बिहारी लाल निगम द्वारा इतिहास के उन अछूतों पहलुओं को प्रमाणित होते देखा। तब इस बात का ज्ञान हुआ कि किस तरह तथाकथित इतिहासकारों ने भारतीय वास्तविक इतिहास को धूमिल कर आततायी मुगलों के इतिहास को भारत का स्वर्णमयी इतिहास के नाम से पढ़ने को मजबूर किया। यही कारण है कि जब भी कोई भारत के वास्तविक स्वर्णमयी हिन्दू सम्राटों की बात करता है, उसे साम्प्रदायिक तत्व करार कर दिया जाता है।

बात सन 82/83 की है, बम्बई वर्तमान मुंबई के बाबूभाई पटेल ने एक पत्रिका Mother India के प्रथम अंक में चर्चित पत्रकारों एवं प्रतिष्ठित व्यक्तियों के लेखों का समावेश किया था। मलकानी जी के लेख पर सेवानिर्वित मेजर हबीबुल्लाह ने आपत्ति को स्वामी एवं संपादक बाबूभाई को प्रेषित की और बाबूभाई ने मलकानी जी को उत्तर देने के लिए प्रेषित की। दो/तीन सप्ताह Organiser में दोनों का वाद-विवाद चलता रहा। अन्तः मेजर साहब द्वारा ऑफिस आकर मलकानी जी से वार्तालाप कर विवाद को विराम दिया गया । सोमवार का दिन था। जिस सप्ताह विवाद को विराम दिया , साप्ताहिक के प्रकाशित होने से पूर्व, क्योंकि उन दिनों मंगलवार को प्रकाशित होता था। शनिवार को अपने उत्तर में मलकानी जी ने क़ुतुब मीनार के विषय में लिखा था। पृष्ठ पढ़ने उपरान्त क़ुतुब के बारे में लिखी बातों की शंका दूर करने पर चर्चा करने पर कहा "जो आपने लिखा है, वही बात मेरे पिताजी भी बताते हैं, मेरे को उस पुस्तक का नाम चाहिए। उन्होने नाम भी दिया और साथ में 10 रूपए का नोट देकर बोले, यूँ तो तुम्हे सिगरेट पीने से मना करता हूँ, कल Sunday है, क़ुतुब मीनार जाना, अपने दोस्तों और भाइयों को भी लेकर जाना, रूपए कम पड़े, Monday को ले लेना, खाना-पीना और वहां जाकर इन जगहों को बड़े ध्यान से देखना, बीच-बीच में छोटी-छोटी मूर्तियाँ दिखाई देंगी तो टूटने से रह गयीं। वास्तव में छेनी से तोड़ने में कुछ मूर्तियाँ साबुत रह गयीं थीं।" मेरे भ्राताश्री और उनके दो मित्र यानि चार लोग गए थे, खर्चा हुआ चार रूपए कुछ पैसे, शेष मलकानी जी ने लेने से मना कर दिया, क्योंकि जब उनको शनिवार को पिताश्री द्वारा मिली डांट के बारे में बताया, बोले "निगम तुम भाग्यशाली हो कि घर और ऑफिस में तुम्हे एक ही वातावरण मिल रहा है।" दुर्भाग्य से यह जानकारी आम जनता तक नहीं पहुँच पायी थी, क्योंकि सोमवार को मेजर साहब द्वारा विवाद को समाप्त किए जाने के कारण प्रेस से पेज वापस ले लिया गया था। लेकिन सेवानिर्वित उपरान्त एक हिन्दी पाक्षिक का सम्पादन करते, एक लम्बे अंतराल उपरान्त, लाल किला और क़ुतुब मीनार की वास्तविकता के विषय में लिखा।
प्रो वेद प्रकाश भाटिया Organiser weekly में बहुचर्चित स्तम्भ Cabbages & Kings लिखते थे। अपने इस स्तम्भ में उन्होंने अनेको बार बुर्का प्रथा पर लिखा कि यह कोई इस्लामिक प्रथा नहीं है। मुग़ल काल में अनेकों बार ऐसे भी अवसर आए, जब खूबसूरत लड़कों को भी बुर्के में रहना पड़ता था। जिसे Organiser की फाइलों में आज भी पढ़ा जा सकता है। तत्कालीन मुस्लिम नेता एवं सांसद जनाब सयैद शाहबुद्दीन इस स्तम्भ को पढ़े बिना सोते नहीं थे। यदि यह इस्लाम के विरुद्ध बात होती, Organiser पर न जाने कितने केस दर्ज़ हो गए होते। यानि दूसरे स्पष्ट शब्दों में कहा जाए हवस इतनी अधिक थी, कोई भी खूबसूरत कभी भी हवस का शिकार बन सकता/सकती थी।
यह सब तथ्य सिद्ध करते हैं कि चंद चांदी के टुकड़ों की खातिर हमारे नेताओं और इतिहासकारों ने भारत के वास्तविक इतिहास को धूमिल कर रखा है।
दिल्‍ली में अकबर रोड का नाम बदलने के प्रस्ताव पर विवाद खड़ा हो गया है। एक ओर जहां केन्द्रीय मन्त्री वी.के. सिंह ने वेंकैया नायडू को पत्र भेजकर अकबर रोड का नाम महाराणा प्रताप के नाम पर करने की मांग की है। वहीं, दूसरे पक्ष ने ‘दीन-ए-इलाही’ का हवाला देते हुए अकबर को महान बताया है। आपको अकबर की ‘दीन-ए-इलाही’ नीति के बारे में बताने जा रहे हैं, जिससे देश के हिंदू और मुसलमान एक हो गए थे।
भास्कर न्यूज़ के अनुसार  इतिहास के विशेषज्ञ राजेंद्र राठौर बताते हैं, शुरुआत में अकबर को भारत में हुकूमत करने के लिए हिंदुओं को साथ में रखना मजबूरी थी। लेकिन बाद में फतेहपुर सीकरी के इबादत खाने में अलग-अलग धर्मों के आचार्य और संत−महात्माओं के साथ बातचीत करते रहने से अकबर के धार्मिक विचारों में बड़ी क्रांति हुई।  उस समय हिंदू और मुसलमानों में धार्मिक मतभेद भी बढ़ने लगे थे, तो अकबर ने नए धर्म के बारे में सोचा। इसके अलावा अबुलफजल के अकबरनामा के मुताबिक, अकबर ने कहा था कि जितने धर्म होंगे उतने ही दल होंगे।  ऐसे में आपस में शत्रुता होती है। इसलिए सभी धर्मों का समन्‍वय जरूरत है। इससे ईश्वर के प्रति आदर बढ़ेगा और लोगों में शांति रहेगी।
अकबर ने सर्वधर्म समन्‍वय का रास्‍ता पकड़ा, जिसे ‘सुलह कुल’ कहा गया।  इसी को आगे बढ़ाकर उसने 40 साल की उम्र में साल 1582 में दीन-ए-इलाही बनाया।
मुग़ल शासको के कितने भी गुणगान कर लो लेकिन भारत में जितने भी मुग़ल आये उन्होंने अपनी नीचता दिखाने में कसार नहीं छोड़ी।
भारत में  स्त्रियों का सबसे ज्यादा शोषण मुग़ल के आने के बाद ही शुरू हुआ। मुग़ल शासन काल से पर्दाप्रथा, जौहर, वैश्यावृति, शारीरिक शोषण ने जोर पकड़ा। इनमें महान अकबर भी किसी से पीछे नहीं था।
आइये जानते हैं अकबर की असलियत और अकबर का मीना बाज़ार –
*सिर्फ 22 साल की उम्र में अकबर पूरी तरह से वासना लिप्त हो चुका था. शाह अबुल माली और मिर्जा शैफुदीन हुसैन के घर की स्त्रियाँ भी अकबर की  वासना की बलि चढ़ चुकी थीं।
*अकबर ने आगरा और अन्य जगह के लगभग 15-20  परिवारों की स्त्रियों को अपने हरम में लाना चाहता था। जिसके बाद आगरा के मुख्य  मुसलमान दर‍बारियों में गुप्त बैठक बुलाई गई और अकबर की हत्या करने की योजना तैयार की गई  थी। लेकिन अकबर को मार पाना इतना आसान नहीं था।
*अकबर के इस वासना कुकर्म और उसके ऐयाशी से उसकी प्रजा भी काफी नाराज़ थी। अकबर के परिवार की औरतें और रिश्तेदार भी अकबर से और अकबर का मीना बाज़ार से नफरत करते थे। परिवार के सदस्यों ने अकबर को मारने के लिए तीर कमान तक सीखना शुरू कर दिया था, क्योकि अकबर को पास रहकर मार पाना असम्भव था।
*1564 में अकबर द्वारा औलिया दरगाह पर दर्शन का आयोजन कराया गया था, जहाँ मदरसे से नीचे आते वक़्त अकबर पर तीर कमान चलना शुरू हो गया। अंगरक्षकों ने अकबर की जान बचाई और दिल्ली महल में लेकर आये। खून से लथपथ अकबर का इलाज लगभग दस दिनों तक चला था।
*इस मौत के डर ने अकबर को झकझोर दिया। जिसके बाद अकबर ने दुसरो की पत्नियों को छीनकर हरम में लाना बंद किया था।
इस वीरांगना के इस साहसिक कदम ने
मीना बाजार बन्द करवाया था 
*लेकिन अकबर का मीना बाज़ार चलता था। मीना बाजार के बहाने औरतों को बुलाकर उनकी इज्ज़त लूटने का सिलसिला चल ही रहा था। इस मीना बाज़ार की आड़ में अकबर औरतों को बुलवाता और अपनी वासना शांत कर छोड़ देता था।
*अकबर औरतों को घुमने के बहाने मीना बाज़ार में लाता था और उनकी इज्ज़त लूटकर अपनी हवास पूरी करता था। यहाँ बड़े बड़े राजा और शासक की बहु बेटियों को बुलाकर उनको देखता और जो पसंद आ जाती उसकी इज्ज़त लूटता था।
ये था अकबर और अकबर का मीना बाज़ार – वैसे तो अकबर का इतिहास और जीवन नीचतापूर्ण और दरिंदगी से भरा हुआ था, लेकिन पता नहीं क्यों भारत के इतिहास में अकबर को महान शासक कहा गया।
अकबर की महानता का गुणगान तो कई इतिहासकारों ने किया है लेकिन अकबर की औछी हरकतों का वर्णन बहुत कम इतिहासकारों ने किया है
अकबर अपने गंदे इरादों से प्रतिवर्ष दिल्ली में नौरोज का मेला आयोजित करवाता था जिसमें पुरुषों का प्रवेश निषेध था अकबर इस मेले में महिला की वेष-भूषा में जाता था और जो महिला उसे मंत्र मुग्ध कर देती थी उसे दासियाँ छल कपटवश अकबर के सम्मुख ले जाती थी एक दिन नौरोज के मेले में महाराणा प्रताप की भतीजी छोटे भाई महाराज शक्तिसिंह की पुत्री मेले की सजावट देखने के लिए आई जिनका नाम बाईसा किरणदेवी था जिनका विवाह बीकानेर के पृथ्वीराज जी से हुआ

बाईसा किरणदेवी की सुंदरता को देखकर अकबर अपने आप पर काबू नही रख पाया और उसने बिना सोचे समझे दासियों के माध्यम से धोखे से जनाना महल में बुला लिया जैसे ही अकबर ने बाईसा किरणदेवी को स्पर्श करने की कोशिश की किरणदेवी ने कमर से कटार निकाली और अकबर को ऩीचे पटकर छाती पर पैर रखकर कटार गर्दन पर लगा दी और कहा नींच... नराधम तुझे पता नहीं मैं उन महाराणा प्रताप की भतीजी हुं जिनके नाम से तुझे नींद नहीं आती है बोल तेरी आखिरी इच्छा क्या है अकबर का खुन सुख गया कभी सोचा नहीं होगा कि सम्राट अकबर आज एक राजपूत बाईसा के चरणों में होगा अकबर बोला मुझे पहचानने में भूल हो गई मुझे माफ कर दो देवी तो किरण देवी ने कहा कि आज के बाद दिल्ली में नौरोज का मेला नहीं लगेगा और किसी भी नारी को परेशान नहीं करेगा अकबर ने हाथ जोड़कर कहा आज के बाद कभी मेला नहीं लगेगा उस दिन के बाद कभी मेला नहीं लगा
इस घटना का वर्णन गिरधर आसिया द्वारा रचित सगत रासो मे 632 पृष्ठ संख्या पर दिया गया है बीकानेर संग्रहालय में लगी एक पेटिंग मे भी इस घटना को एक दोहे के माध्यम से बताया गया है
किरण सिंहणी सी चढी उर पर खींच कटार
भीख मांगता प्राण की अकबर हाथ पसार
धन्य है किरण बाईसा उनकी वीरता को कोटिशः प्रणाम !
इस सन्दर्भ में निम्न लेख का भी अवलोकन करिये :--

इतना ही नहीं, दीने इलाही चलाने वाले अकबर ने किस तरह ज्वाला माता की जोत को बुझाने का दुस्साहस किया था।
अकबर और ध्यानु भगत की कथा :-
हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा से 30 किलो मीटर दूर स्तिथ है, ज्वाला देवी मंदिर। इसे जोता वाली का मंदिर भी कहा जाता है। यहाँ पर पृथ्वी के गर्भ से नौ अलग अलग जगह से ज्वाला निकल रही है जिसके ऊपर ही मंदिर बना दिया गया हैं। इन नौ ज्योतियां को महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्यावासनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका, अंजीदेवी के नाम से जाना जाता है।
इस जगह के बारे में एक कथा अकबर और माता के परम भक्त ध्यानु भगत से जुडी है। जिन दिनों भारत में मुगल सम्राट अकबर का शासन था,उन्हीं दिनों की यह घटना है। हिमाचल के नादौन ग्राम निवासी माता का एक सेवक धयानू भक्त एक हजार यात्रियों सहित माता के दर्शन के लिए जा रहा था। इतना बड़ा दल देखकर बादशाह के सिपाहियों ने चांदनी चौक दिल्ली मे उन्हें रोक लिया और अकबर के दरबार में ले जाकर ध्यानु भक्त को पेश किया।
बादशाह ने पूछा तुम इतने आदमियों को साथ लेकर कहां जा रहे हो। ध्यानू ने हाथ जोड़ कर उत्तर दिया मैं ज्वालामाई के दर्शन के लिए जा रहा हूं मेरे साथ जो लोग हैं, वह भी माता जी के भक्त हैं, और यात्रा पर जा रहे हैं।
अकबर ने सुनकर कहा यह ज्वालामाई कौन है ? और वहां जाने से क्या होगा? ध्यानू भक्त ने उत्तर दिया महाराज ज्वालामाई संसार का पालन करने वाली माता है। वे भक्तों के सच्चे ह्रदय से की गई प्राथनाएं स्वीकार करती हैं। उनका प्रताप ऐसा है उनके स्थान पर बिना तेल-बत्ती के ज्योति जलती रहती है। हम लोग प्रतिवर्ष उनके दर्शन जाते हैं।
अकबर ने कहा अगर तुम्हारी बंदगी पाक है तो देवी माता जरुर तुम्हारी इज्जत रखेगी। अगर वह तुम जैसे भक्तों का ख्याल न रखे तो फिर तुम्हारी इबादत का क्या फायदा? या तो वह देवी ही यकीन के काबिल नहीं, या फिर तुम्हारी इबादत झूठी है। इम्तहान के लिए हम तुम्हारे घोड़े की गर्दन अलग कर देते है, तुम अपनी देवी से कहकर उसे दोबारा जिन्दा करवा लेना। इस प्रकार घोड़े की गर्दन काट दी गई।
ध्यानू भक्त ने कोई उपाए न देखकर बादशाह से एक माह की अवधि तक घोड़े के सिर व धड़ को सुरक्षित रखने की प्रार्थना की। अकबर ने ध्यानू भक्त की बात मान ली और उसे यात्रा करने की अनुमति भी मिल गई।
बादशाह से विदा होकर ध्यानू भक्त अपने साथियों सहित माता के दरबार मे जा उपस्थित हुआ। स्नान-पूजन आदि करने के बाद रात भर जागरण किया। प्रात:काल आरती के समय हाथ जोड़ कर ध्यानू ने प्राथना की कि मातेश्वरी आप अन्तर्यामी हैं। बादशाह मेरी भक्ती की परीक्षा ले रहा है, मेरी लाज रखना, मेरे घोड़े को अपनी कृपा व शक्ति से जीवित कर देना। कहते है की अपने भक्त की लाज रखते हुए माँ ने घोड़े को फिर से ज़िंदा कर दिया।
यह सब कुछ देखकर बादशाह अकबर हैरान हो गया। उसने अपनी सेना बुलाई और खुद मंदिर की तरफ चल पड़ा | वहाँ पहुँच कर फिर उसके मन में शंका हुई। उसने अपनी सेना से मां की ज्योतियों को बुझाने के लिए बड़े-बड़े पत्थर डलवाये, जोत पत्थरों से बाहर प्रकट हो गयी, फिर जोत पर मोटे-मोटे लोहे के तवों से जोत को बुझाना चाहा, उसमे भी असफल होने पर नहर बनवाया लेकिन मां के चमत्कार से ज्योतियां नहीं बुझ पाईं। इसके बाद अकबर मां के चरणों में नंगे पाओं पहुंचा लेकिन उसको अहंकार हुआ था कि उसने सवा मन (पचास किलो) सोने का छत्र हिंदू मंदिर में चढ़ाया है। ज्वाला माता ने वह छतर कबूल नहीं किया, इसे लोहे का बना (खंडित कर) दिया था।
आप आज भी बादशाह अकबर का छतर ज्वाला देवी के मंदिर में देख सकते है। जब माँ ने अकबर का घमंड तोड़ दिया था और अकबर भी माँ का सेवक बन गया था, तब अकबर ने भी माँ के भगतो के लिए वहाँ सराय बनवाए।
चमत्कारिक है ज्वाला :

पृथ्वी के गर्भ से इस तरह की ज्वाला निकलना वैसे कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि पृथ्वी की अंदरूनी हलचल के कारण पूरी दुनिया में कहीं ज्वाला कहीं गरम पानी निकलता रहता है। कहीं-कहीं तो बाकायदा पावर हाऊस भी बनाए गए हैं, जिनसे बिजली उत्पादित की जाती है। लेकिन यहाँ पर ज्वाला प्राकर्तिक न होकर चमत्कारिक है क्योंकि अंग्रेजी काल में अंग्रेजों ने अपनी तरफ से पूरा जोर लगा दिया कि जमीन के अन्दर से निकलती 'ऊर्जा' का इस्तेमाल किया जाए। कुछ वर्ष पहले ONGC ने भी Gas Resources ढूंढे, लेकिन लाख कोशिश करने पर भी वे इस 'ऊर्जा' के श्रोत को नहीं ढूंढ पाए। वही अकबर लाख कोशिशों के बाद भी इसे बुझा न पाया।
तथाकथित इतिहासकार अकबर की कितनी भी तारीफ़ लिख ले, लाख कहे Akbar the Great लेकिन अकबर की नीचता के प्रमाण मिलते ही है।

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