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क्या पुलिस किसी मौलवी को ईद के मौके पर गिरफ्तार करने का साहस दिखा सकती है?--प्रणव मुख़र्जी


आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार 
प्रणब मुखर्जी कांग्रेस के सबसे प्रतिष्ठित नेता हैं. हर राजनीतिक पार्टी के नेता उनकी इज्जत करते हैं और राजनीतिक मुद्दों पर उनकी राय जानना चाहते हैं. हालांकि वो आज भी कांग्रेस में हैं लेकिन उन्होंने अपनी नई किताब में एक ऐसी बात लिखी है जिससे उनकी ही पार्टी को आने वाले चुनावों में मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है.
अक्टूबर 13 को प्रणब मुखर्जी की किताब का विमोचन हुआ। उस किताब में प्रणब मुखर्जी ने यूपीए सरकार और उसकी कई नीतियों और फैसलों के बारे में जिक्र किया है। प्रणब मुखर्जी की किताब के बाद एक बार फिर बीजेपी कांग्रेस को मुस्लिम तुष्टिकरण वाली पार्टी करार दे सकती है। क्योंकि इस किताब में प्रणब मुखर्जी ने एक ऐसी घटना का जिक्र किया है जिससे ये साफ हो रहा है कि प्रणब मुखर्जी यूपीए सरकार के उस फैसले के खिलाफ थे। जिसे उन्होंने कैबिनेट में भी उठाया था। उनके सवालों को सुनकर पूरी कांग्रेस सन्न रह गई थी।
‘द कोलिशन ईयर्स 1996-2012’ ये शीर्षक पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की किताब का है। इसी किताब में उन्होंने कांची पीठ के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती की गिरफ्तारी का जिक्र किया है। उन्होंने लिखा है कि 2004 में कांची पीठ के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती की गिरफ्तारी पर सवाल उठाए थे। प्रणब मुखर्जी  ने किताब में लिखा गया है कि वो जयेंद्र सरस्वती की गिरफ्तारी से बेहद नाराज थे। सरकार के सामने भी उन्होंने इस नाराजगी को जाहिर किया था। उन्होंने लिखा है कि पुलिस की इस कार्रवाई से वो बेहद गुस्से में थे और कैबिनेट के सामने भी उन्होंने इसे उठाया था।
कांग्रेस के कुकर्म

प्रणब मुखर्जी ने किताब में लिखा है कि एक कैबिनेट बैठक के दौरान मैं इस गिरफ्तारी की टाइमिंग को लेकर नाराज था। मैंने सवाल पूछा कि क्या देश में धर्मनिरपेक्षता का पैमाना केवल हिंदू संत महात्माओं तक ही सीमित है? क्या किसी राज्य की पुलिस किसी मुस्लिम मौलवी को ईद के मौके पर गिरफ्तार करने का साहस दिखा सकती है। दरअसल कांची पीठ के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती को 2004 में नवंबर के महीने में दीवाली के वक्त हत्या के आरोप में आंध्र प्रदेश से गिरफ्तार किया गया था।
दरअसल यूपीए सरकार के दौरान कांग्रेस पार्टी पर मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप लगे थे। तब बीजेपी ने इसे चुनावी मुद्दा भी बनाया था। इसके बाद प्रणब मुखर्जी की किताब में कही गई ये बात एक बार फिर बीजेपी के लिए एक मुद्दा बन सकती है। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में 2004 में यीपीए की सरकार बनी थी। तब प्रणब मुखर्जी मई 2004 से अक्टूबर 2006 तक प्रणब मुखर्जी रक्षा मंत्री थे।
पूर्व राष्ट्रपति प्रणव दा के इस कथन में बहुत दम है। दिल्ली के तत्कालीन शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी के विरुद्ध कई बार गिरफ़्तारी के वारंट हुए, लेकिन गृह मंत्रालय से सहयोग न मिलने के कारण पुलिस गिरफ्तार नहीं कर सकी।

1997 में एक नेता की महात्वाकांक्षा की वजह से गिरी थी गुजराल सरकार, प्रणब मुखर्जी ने बताया नाम

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सीताराम केसरी ने वर्ष 1997 में संयुक्त मोर्चे की आई.के गुजराल सरकार से द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके) को कैबिनेट से बाहर नहीं करने के फैसले के बाद समर्थन वापस ले लिया था लेकिन इसके पीछे प्रधानमंत्री बनने की उनकी अपनी महत्वाकांक्षा थी। पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने अपने नवीनतम किताब में इस बात का उल्लेख किया है। किताब के मुताबिक, “कांग्रेस ने समर्थन वापस क्यों लिया? केसरी के बार-बार ‘मेरे पास समय नहीं है’ दोहराने का क्या मतलब था। कई कांग्रेस नेताओं ने उनके प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा की ओर इशारा किया था।”मुखर्जी ने अपनी नवीनतम किताब ‘गठबंधन वर्ष-1996-2012’ में लिखा, “उन्होंने भाजपा-विरोधी लहर का लाभ उठाना चाहा और गैर-भाजपा सरकार का प्रमुख बनकर अपनी महत्वाकांक्षा को पाने का प्रयास किया।”राजीव गांधी हत्याकांड की जांच के लिए स्थापित जैन आयोग की रिपोर्ट आने के बाद संयुक्त मोर्चे की सरकार से समर्थन वापस लेने की घोषणा की गई थी।जैन आयोग की अंतरिम रिपोर्ट से इस बात का पता चला था कि डीएमके और इसका नेतृत्व लिट्टे नेता वी.प्रभाकरन को प्रोत्साहन देने में संलिप्त था। रिपोर्ट में हालांकि राजीव गांधी की हत्या के संबंध में डीएमके के किसी भी नेता या किसी भी पार्टी का सीधे नाम नहीं था। संयुक्त मोर्चा सरकार के लिए यह काफी संकटपूर्ण स्थिति थी क्योंकि डीएमके सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था। वहीं कांग्रेस सरकार को बाहर से समर्थन दे रही थी।
क्या पुस्तक कांग्रेस के लिए अभिशाप सिद्ध होगी?
मुखर्जी ने याद करते हुए किताब में उल्लेख किया है कि 1997 के शरद संसद सत्र में इस समस्या से निपटने के लिए काफी माथापच्ची की गई थी। गुजराल ने अपने अधिकारिक आवास पर केसरी, जितेंद्र प्रसाद, अर्जुन सिंह, शरद पवार और मुखर्जी जैसे नेताओं को रात्रि भोज पर बुलाया था।गुजराल ने कहा कि ऐसे वक्त पर अगर डीएमके पर कार्रवाई की जाएगी तो इसका गलत संदेश जाएगा। सरकार अपने सहयोगी पार्टियों के दबाव में दिखेगी। मुखर्जी ने अपनी किताब में लिखा, ‘गुजराल इस बात पर सहमत थे कि सरकार की विश्ववसनीयता पर आंच नहीं आनी चाहिए। हमने उनसे कहा कि हम इस मुद्दे को कांग्रेस वर्किं ग समिति (सीडब्ल्यूसी) के समक्ष रखेंगे जो अंतिम निर्णय लेगी।’किताब के अनुसार बड़ी संख्या में कांग्रेस नेता सरकार से तत्काल समर्थन वापस लेने के पक्ष में नहीं थे। इनमें से कई को डर था कि तत्काल चुनाव आने के बाद कई दोबारा सांसद नहीं बन पाएंगे। गुजराल भी शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों और वामपंथियों के बीच ही लोकप्रिय थे। उन्होंने लिखा, इन सब बातों के बीच कांग्रेस ने समर्थन वापस लेने और सीवीसी ने प्रधानमंत्री के डीएमके पर कार्रवाई न करने की स्थिति में समर्थन वापस लेने का फैसला किया।
किताब के अनुसार ऊंचे इरादों वाले गुजराल डीएमके पर कार्रवाई न करने और कांग्रेस के इशारों पर नहीं नाचने के अपने रुख पर कायम रहे और सम्मान के साथ प्रधानमंत्री के पद से रूखसत हुए। 5 मार्च 1988 को सीताराम केसरी ने सीवीसी की बैठक बुलाई जिसमें जितेंद्र प्रसाद, शरद पवार और गुलाम नबी आजाद ने सोनिया गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने की पहल के लिए आग्रह किया। केसरी ने यह सुझाव ठुकरा दिया और मुखर्जी समेत अन्य नेताओं पर उनके खिलाफ षड्यंत्र रचने के आरोप लगाए। वह बाद में बैठक छोड़कर चले गए। केसरी के जाने के बाद सीवीसी के सभी सदस्यों ने केसरी को उनके नेतृत्व के लिए धन्यवाद संबंधी और सोनिया गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने के संबंध में प्रस्ताव पारित किया।

Comments

ये बहुत ही चिंतनीय विषय है, जहा पूर्व राष्ट्रपति इस तरह के सवाल उठा रहे है। क्या हमारा समाज इतना कमजोर हो गया है की कानून से ऊपर कोई और हो ? और मोदी राज में तो ये बहुत ही निंदनीय हो सकता है। अब वक्त ही बताएगा क्या सही है और क्या गलत है ? लेकिन इस तरह की घटने अच्छी नहीं है - Hindi News Trend

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