पद्मावति फिल्म पर सुप्रीम कोर्ट के
फैसले से भाजपा के हाथ पांव फूल गए हैं। दरअसल, राजस्थान के दो लोकसभा
क्षेत्रों अजमेर और अलवर में 29 जनवरी को उपचुनाव होने हैं और पद्मावत के
खिलाफ सबसे ज्यादा विरोध राजस्थान में ही हुआ है। अब सुप्रीम कोर्ट के
फैसले के बाद भाजपा को इन उपचुनावों की चिन्ता है। अंग्रेजी दैनिक टेलीग्राफ के मुताबिक, भाजपा के एक प्रवक्ता ने कहा कि उन्हें इस विषय पर
बोलने से मना किया गया है। 2014 के चुनाव में भाजपा ने अजमेर और अलवर से
क्रम से कांग्रेस के दिग्गज सचिन पायलट और भंवर जितेन्द्र सिंह को हराया
था। पर दोनों ही सांसदों का निधन होने से अब उपचुनाव हो रहे हैं। फिल्म को
मुद्दा बनाने के बाद अब सुप्रीम कोर्ट में हार के बाद भाजपा की हालत खराब
है। इसी मारे कल टीवी पर करणी सेना के नेताओं को आग उगलने दिया गया और भारत
बंद की अपील तक हो गई। इसे आज इंडियन एक्सप्रेस ने अच्छे से छापा है।
इंडियन एक्सप्रेस की खबर के आलोक में मीडिया की भूमिका और सरकार व भाजपा की
चुप्पी पर एक टिप्पणी पढ़िये।
‘इंडियन एक्सप्रेस’ की यह पहली खबर है और ऊपर की लाइनें – शीर्षक का अनुवाद है, जो अखबार में बड़े अक्षरों में प्रमुखता से छपा है। हिन्दी में यें खबरें ऐसी ही छपी होंगी इसकी उम्मीद मुझे नहीं है इसलिए मैंने हिन्दी अखबारों को देखने से पहले ही यह अनुवाद कर दिया है।
यह बताने के लिए देश में क्या चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट की सर्वोच्चता को यह कैसी चुनौती है। पहले ऐसा नहीं होता था। मुझे याद नहीं है कि पहले कभी किसी राज्य सरकार ने कहा हो कि आदेश का अध्ययन करेंगे। पहले कहा जाता था कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन होगा। और जब राज्य सरकारों का यह हाल है तो देश की जनता का क्या होगा। वह तो भीड़ की तरह व्यवहार करती ही है। और मुझे लगता है कि दोष टेलीविजन तथा कुछ हद तक सोशल मीडिया का है। हालांकि, सोशल मीडिया ही है कि कुछ समझाने और समझदारी की भी बात हो रही है।
मैं टेलीविजन नहीं देखता (कुछ पसंदीदा मित्रों के कार्यक्रम छोड़कर) पर सोशल मीडिया से पता चला कि टीवी पर ऐसे लोगों को बैठाकर खूब माहौल बनाया गया। शायद भारत बंद की भी अपील है। एक मित्र ने लिखा था कि बंद कराने वालों को औकात समझ में आ जाएगी पर मुझे लगता है कि मीडिया (खासकर टेलीविजन) और सरकार का साथ मिले (उसे साथ देना नहीं होता है पुलिस की सुस्ती पर कुछ करना नहीं होता है और इतना काफी होता है) तो भीड़ बंद करा देगी। फिल्म चलने नहीं देगी। यह अलग बात है कि तकनीक के इस जमाने में किसी को फिल्म देखने से रोकना लगभग असंभव है। पर कानून व्यवस्था? वह तो राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। इस खबर से तो वह बिल्कुल लाचार नजर आ रही है।
दूसरी ओर, सरकार क्या कर रही है। वह क्यों ऐसे मामले बढ़ने दे रही है? राज्य सरकारें क्यों नहीं कह रही हैं कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अब कोई सुनवाई नहीं फिल्म प्रदर्शित होगी और जो विरोध करेगा उसके खिलाफ कार्रवाई होगी। सरकार का इतना कहना ही पर्याप्त होता है। सरकार औऱ सरकार चलाने वाले यह सब अच्छी तरह जानते हैं पर ऐसा कह नहीं रहे हैं। जाहिर है, यह उनकी राजनीति है। और अगर यह वाकई राजनीति है तो घटिया है।
अगर समाज खराब हो जाएगा, नियंत्रण योग्य नहीं रहेगा तो आप सरकार में रहकर भी क्या करेंगे? होगा वही जो भीड़ चाहेगी और भीड़ हमेशा यह नहीं चाहेगी कि कुर्सी पर आप ही रहें। इसलिए मुझे लगता है सरकार खतरनाक खेल खेल रही है। मुमकिन है वह मीडिया के बनाए माहौल से परेशान हो और किंकर्तव्यविमूढ़ हो। अगर वाकई ऐसा है तो यह भी खतरे की घंटी है। मीडिया (खासकर टीवी चैनलों) को भी ठीक होना ही होगा। यह नहीं हो सकता है कि वे आत्मनियंत्रण ना मानें और जिम्मेदार व्यवहार भी न करें और उन्हें चलते रहने दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद किसी से पूछने और उसे यह कहने देने का कोई मतलब नहीं है कि हम सुप्रीम कोर्ट का आदेश नहीं मानेंगे।
इस फिल्म की रिलीज रोकने के लिए पूरे देशभर में करणी सेना और क्षत्रिय समाज विरोध प्रदर्शन कर रहा है। जगह जगह निर्माता संजय लीला भंसाली के पुतले फूंके जा रहे हैं।
‘इंडियन एक्सप्रेस’ की यह पहली खबर है और ऊपर की लाइनें – शीर्षक का अनुवाद है, जो अखबार में बड़े अक्षरों में प्रमुखता से छपा है। हिन्दी में यें खबरें ऐसी ही छपी होंगी इसकी उम्मीद मुझे नहीं है इसलिए मैंने हिन्दी अखबारों को देखने से पहले ही यह अनुवाद कर दिया है।
यह बताने के लिए देश में क्या चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट की सर्वोच्चता को यह कैसी चुनौती है। पहले ऐसा नहीं होता था। मुझे याद नहीं है कि पहले कभी किसी राज्य सरकार ने कहा हो कि आदेश का अध्ययन करेंगे। पहले कहा जाता था कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन होगा। और जब राज्य सरकारों का यह हाल है तो देश की जनता का क्या होगा। वह तो भीड़ की तरह व्यवहार करती ही है। और मुझे लगता है कि दोष टेलीविजन तथा कुछ हद तक सोशल मीडिया का है। हालांकि, सोशल मीडिया ही है कि कुछ समझाने और समझदारी की भी बात हो रही है।
मैं टेलीविजन नहीं देखता (कुछ पसंदीदा मित्रों के कार्यक्रम छोड़कर) पर सोशल मीडिया से पता चला कि टीवी पर ऐसे लोगों को बैठाकर खूब माहौल बनाया गया। शायद भारत बंद की भी अपील है। एक मित्र ने लिखा था कि बंद कराने वालों को औकात समझ में आ जाएगी पर मुझे लगता है कि मीडिया (खासकर टेलीविजन) और सरकार का साथ मिले (उसे साथ देना नहीं होता है पुलिस की सुस्ती पर कुछ करना नहीं होता है और इतना काफी होता है) तो भीड़ बंद करा देगी। फिल्म चलने नहीं देगी। यह अलग बात है कि तकनीक के इस जमाने में किसी को फिल्म देखने से रोकना लगभग असंभव है। पर कानून व्यवस्था? वह तो राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। इस खबर से तो वह बिल्कुल लाचार नजर आ रही है।
दूसरी ओर, सरकार क्या कर रही है। वह क्यों ऐसे मामले बढ़ने दे रही है? राज्य सरकारें क्यों नहीं कह रही हैं कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अब कोई सुनवाई नहीं फिल्म प्रदर्शित होगी और जो विरोध करेगा उसके खिलाफ कार्रवाई होगी। सरकार का इतना कहना ही पर्याप्त होता है। सरकार औऱ सरकार चलाने वाले यह सब अच्छी तरह जानते हैं पर ऐसा कह नहीं रहे हैं। जाहिर है, यह उनकी राजनीति है। और अगर यह वाकई राजनीति है तो घटिया है।
अगर समाज खराब हो जाएगा, नियंत्रण योग्य नहीं रहेगा तो आप सरकार में रहकर भी क्या करेंगे? होगा वही जो भीड़ चाहेगी और भीड़ हमेशा यह नहीं चाहेगी कि कुर्सी पर आप ही रहें। इसलिए मुझे लगता है सरकार खतरनाक खेल खेल रही है। मुमकिन है वह मीडिया के बनाए माहौल से परेशान हो और किंकर्तव्यविमूढ़ हो। अगर वाकई ऐसा है तो यह भी खतरे की घंटी है। मीडिया (खासकर टीवी चैनलों) को भी ठीक होना ही होगा। यह नहीं हो सकता है कि वे आत्मनियंत्रण ना मानें और जिम्मेदार व्यवहार भी न करें और उन्हें चलते रहने दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद किसी से पूछने और उसे यह कहने देने का कोई मतलब नहीं है कि हम सुप्रीम कोर्ट का आदेश नहीं मानेंगे।
इस फिल्म की रिलीज रोकने के लिए पूरे देशभर में करणी सेना और क्षत्रिय समाज विरोध प्रदर्शन कर रहा है। जगह जगह निर्माता संजय लीला भंसाली के पुतले फूंके जा रहे हैं।
इस मामले में फिल्मकार सुप्रीम कोर्ट गए और वहां से फैसला फिल्म के पक्ष में आया। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को फटकरा लगाते हुए फिल्म को बिना किसी बैन के रिलीज करने के आदेश दिए हैं, लेकिन करणी सेना और कुछ संगठन अभी भी अपनी विरोध कर रहे हैं।
आपको बता दें कि ये फिल्म जितनी परेशानी बाहर झेल रही है, उससे कहीं ज्यादा परेशानी इस फिल्म के कलाकारों ने झेली है। इस फिल्म में दीपिका पादुकोण रानी पद्मावती की भूमिका निभा रही हैं, जबकि रणवीर सिंह अलाउद्दीन खिलजी की भूमिका में हैं।
खिलजी इस फिल्म में निगेटिव किरदार है और पूरे एक साल वो इस किरदार के इर्दगिर्द ही रहे। फिल्म की शूटिंग करते करते रणवीर के भीतर इतनी नकारात्मकता भर गई थी कि वो सेट पर कभी कभी रोने लगते थे। फिल्म की शूटिंग खत्म होने के बाद रणवीर को मनोचिकित्सक से सलाह और इलाज लेना पड़ा था। (साभार)
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